पागल बुढिया
बालों के झोपें से क्या वो परेशान नहीं होती,
सड़क के किनारें रोज चलते कचरा बीनते,
नजर पड़ती है मुझ जैसे हजारों की उस पर,
क्या किसी की नजरें उस पर तंग परेशान नहीं होती,
क्या बात है आखिर उन बूढी आंखों में,
एक ना सिकन है चेहरे पर,
ताज्जुब उसे कभी यूं भटकते थकान नहीं होती,
कैसे निष्ठुर पीढी बना रहे है साहेब,
उम्र गुजारी जिसने हमारा आज लिखने को,
फुटपाथ पर उसके नंगे पैरों में जान नहीं होती,
रोज उसी सडक के किनारें हतप्रभ हो जाती हूं,
आखिर उसके हौसले के सामने खामोश हो जाती हूं,
हम बदल गये हैं, हमारी रफ्तारें तेज हो गयी हैं,
बडी खुदमिजाज है, कहती हाथ फैलाये जिदंगी पार नहीं होती,
ये लो कोई कहता कमसिन बुढिया, कोई कचरे बाली बुढिया,
हम तथाकथित शिक्षित पीढी की अम्मा कहने की बात नहीं होती,
गुजर कर कल को ये हालात कमतर नहीं होगें,
आज वो कल कोई और, कोई समझे तो ये हालात ना होती,
बालों के झोपें से क्या वो परेशान नहीं होती,
काश! उसके सवालों का मैं कोई जवाब होती!!!
डाॅ. अवन्तिका शेखावत