Metropolitan Zindagi-Hindi Poem on Busy City Life

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मेट्रोपॉलिटन ज़िन्दगी

दरवाज़े की हुई दस्तक को दरकिनार करना शहरियों की आदत सी हो गयी है
अक्सर किस्मत भी घंटी मार के लौट जाती है परेशान होकर
और कभी खुदा मिलने आया तो उसे भी वापिस जाना पड़ा वक़्त खोकर

सुबह और शाम का मंज़र एक सा लगता है
बहार किसी के होने या न होने से फरक भी क्या पड़ता है
वो क्यों जी रहे हैं दरबों में बंद कबूतरों की तरह
क्या पंख उनके भूल गए हैं उड़ने की कला

दूसरों के काम आने को वो सौदा गलत मान गए
रब ने बनाई दुनिया को “बकवास” और उसके बन्दे को “बेगाना” बता गए
बड़े दिन बाद बहार देखी लेकिन बिना दुआ सलाम के ही फिर मुंह बनाके अंदर चले गए
और लुत्फ़ उठा न सके क्योंकि
दरवाज़े की हुई दस्तक को दरकिनार करना शहरियों की आदत सी हो गयी है

-निवेता