
शून्यता
ऐसी विशालता का भी क्या
जो अपने में समाने की इज्ज़त भी न दे;
भले ही लदे रहो, श्वेत रत्नों से,
पर ऐसे हुस्न का भी क्या,
जो टिकने भी न दे, चन्द मुसाफ़िरों को;
ऐसी ख्याति का भी क्या,
जो पाल न सके,चार परिंदों को;
यूँ तो देखे हैं हमने बहुत ख़लीफ़ा,
पर ऐसी खलिफ़्त का भी क्या,
जो दे ना सकें मरहम एतबार का;
ऐसी खलिफ़्त से तो हम, बेनाम ही सही,
कम से कम हमारे जहन्नुम में ,
चार परिंदे तो उड़ते है,
भर भर के पलेंगे, गगन तो छूते हैं;
हमें गुरूर है अपने गुमनाम-ए-शहर का,
जो कम से कम पाले तो है सबको,
तुम बने रहो जन्नत, हम गुमनाम ही सही,
हमें अपनी इस ताशीर पर ही नाज़ है;
और जो ढूंढते हैं,जन्नत लपलपा कर हर दिन,
हम उन्हें भी अपना सरायदार मानते हैं,
तुम दे देना, एक बार दीदार उन्हें,
कसम खाकर कहता हूँ,
वो लौटकर आएंगे, हमारे सरायदार बनकर;
तुमने ओढ़ी है चादर श्वेत मोतियों की,
हमने ओढ़ा है मैला आँचल ही सही,
पर याद रखना,
फटती है चादर तुम्हारी, जबभी कभी,
उसे सहते हैं, हमारे सरायदार ही सभी
-शशांक मानव