सालगिरह आती रही,
सालगिरह जाती रही,
पर ना खोल सका उन गिरहों को कोई
जो वक़्त ने बाँध रक्खी थीं,
ऐसा क्या ओर क्यों कर था
कि उनका सिरा भी ना मिला?
शायद वो सिरे कहीं दूर थे,
हमारी अपनी पहुँच से दूर,
बहुत दूर अनंत में गढ़े हुए,
या हमारे अपने हाथों की छाप में मढ़े हुए?
कौन जाने ?
जतन मैंने भी किये बेहिसाब,
चाहा तुमने भी बहुत,
पर शायद वक़्त ने सराहा ही नहीं,
वरना क्या वजह हो सकती थी
कि ज़िन्दगी भर साथ चलने के बावजूद
हम किनारों की तरह किनारों पर ही रहे ?
एक किनारा तेरा था,
एक किनारा मेरा भी,
शायद वक़्त ही ठीक से बाँधना भूल गया था
सप्तपदी की गिरह को,
या भूल गया था कोई ऐसी गिरह
जो दोनों किनारों को बाँध पाती,
या दोनों को ले जाकर
छोड़ देता किसी सागर में?
शायद मिल ही जाती वजह
हमें अगली सालगिरह के इंतज़ार की !
-दीपक कुलश्रेष्ठा