
आईसोलेशन में.. प्रेमिकाएं…..
(1) पेड़,नदी,पहाङ और झरने प्रेमिकाएं उन सब से लेती है उधार
एक-एक कटोरी प्रीत और करघे की खङ-खच में बहाती हुई
अपनी निर्झरिणी वे बुन डालती है एक खूबसूरत कालीन
जिसमें मौजूद गाँव खिलखिलाता है
उसकी हँसी के साथ अपने दुरभाग की पजल को सही
खानों में फिट कर वे सुभाग का हल तलाश लेती है
आयु की सटीक गणना से ज्यादा वे
अखबार के नीरस कोने का कठिनतम सुडोकू हल कर लेती है
तुम्हारी कुटिल मुस्कुराहटों में कहीं खो सी गई है प्रेमिकाएं
तुम्हारे खुदपरस्त स्वार्थ में कहीं बिखर सी गई है प्रेमिकाएं
इससे पहले कि बुहार दी जाए वें कतरा-कतरा समेट कर फिर उठ खड़ी होती है
ये ही हैं वे प्रेमिकाएं
ऐतिहासिक ग्रंथों में नायक को अमर करने संवादहीन चरित्र जी लेती है,
शेल्फ में सुस्ताती किसी रामायण पर…
गर्द सी सिमटी हुई महाभारत पर…
एक वर्गज लाल सूती कपङे सी लिपटी हुई।
– प्रतिभा शर्मा