आखिर ऐसी क्यों है तू माँ..
घर से बाहर जाते वक़्त
तेरी आँखों से न ओझल हो जाऊँ मैं
उस हलक तक मुझे निहारती रहती है तू
आखिर ऐसी क्यों है तू माँ…।
तेरे टूट जाने में ही मेरा बनना तय था
फिर भी बेशर्म-सा उग रहा था मैं
और ख़ुशी-ख़ुशी ढ़ल रही थी तू
आखिर ऐसी क्यों है तू माँ…।
याद है वो दिन मुझे जब घर में
खाने वाले पांच और रोटी के टुकड़े थे चार
तब ‘मुझे भूख नहीं है’ ऐसा कहने वाली थी तू
आखिर ऐसी क्यों है तू माँ…।
आज सबकुछ बदला-बदला नज़र आता है
फिर भी इस कैल्कुलेटरमूलक दुनिया में
न बदलने वाली सिर्फ एक ही शख़्स है तू
आखिर ऐसी क्यों है तू माँ…।
कुदरत के उस सरल करिश्में को सलाम
जिसका अक्स मैं खुद में पाता हूँ
अपना सबकुछ त्याग कर भी मुझे अपनी
प्रतिकृति होने का आभास कराती है तू
आखिर ऐसी क्यों है तू माँ…।
हमेशा शिकवा रहेगा मुझे तुझसे यह कि
क्यों तू हमेशा लुटाती रही और मैं रहा लूटता
फिर भी शिकन तक नहीं तेरे माथे पर किंचित
आखिर ऐसी क्यों है तू माँ…।
- © मीना रोहित (आयकर अधिकारी , दिल्ली)
बेहतरीन कविता।
आज सबकुछ बदला-बदला नज़र आता है
फिर भी इस कैल्कुलेटरमूलक दुनिया में
न बदलने वाली सिर्फ एक ही शख़्स है तू
आखिर ऐसी क्यों है तू माँ…।
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बधाई हो दोस्त💐💐💐💐
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बधाई हो भाई….😊
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बहुत बढ़िया भाईसाब 💐💐
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Grt….. Keep it up….. congratulations for future
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आंसू आ गए भाई… शानदार कविता
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बहुत सुंदर
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