
वक़्त
ना जाने वो पल हाथ से कैसे छूट गया
ना जाने कब कैसे कोई अपना रूठ गया
अनजान थी मैं हर एक वो चीज़ से
ना कोई अंदाज़ा रहा और
मेरा ख्वाब यू ही टूट गया
पर अब मुझे समझ आ गया
ख्वाब दूसरा आ जाएगा
वक़्त लेकिन चला जाएगा
वक़्त ऐसी चीज़ है जो
हँसाएगा ओर रुलायेगा |
– नेहा सॉ

अहमियत वक्त की
अहमियत वक्त की तब समझ आई
जब जीवन में ठोकर पर ठोकर खाई,
जब वक्त की कदर ही न की
तभी तो मुसीबतें भी जीवन में बिन बुलाए आई।
फिर तो हमेशा कहते रहे इधर कुआँ, उधर खाई,
अहमियत वक्त की तब समझ आई
जब जीवन में ठोकर पे ठोकर खाई।।
हर वक्त खुशियों की महफ़िल सजाई
पर एसी महफ़िल ही क्या
जिसमें वक्त की कीमत ही समझ न आई।
महफ़िल तो सजा दी हमने बेवक्त बेवजह
पर अंजाम की बात कभी अपने ज़हन में ना आई,
अहमियत वक्त की तब समझ आई
जब जीवन में ठोकर पर ठोकर खाई।।
-रोहित

चल रहा है वक्त धीमी रफ़्तार से
चल रही हूँ में धीमी रफ़्तार से
ना जाने क्यूँ चल रहा है वक़्त
ना जाने क्यूँ चल रही हूँ मैं
धीमी रफ़्तार से
ख़ुशी के वक़्त चलता वक़्त तेज़ रफ़्तार से
दर्द के वक़्त चलता वक़्त धीमी रफ़्तार से
शायद चल रहा है दर्द मेरे अंदर
धीमी रफ़्तार से
किसी ने पकड़ा था हाथ तो चल पड़ा वक़्त रफ़्तार से
छोड़ दिया उसने हाथ तो रुक गया वक़्त बिना बात के
वक़्त तो वो ही है और चल रहा वो अपनी रफ़्तार से
शायद मैं ही चल रही हूँ खुद अपनी रफ़्तार से
शायद मैं ही चल रही हूँ खुद अपनी रफ़्तार से
-मानसी गोयल
Chal raha hai waqt dheemi raftaar se…
Chal rahi hun me dheemi raftaar se…
Na jaane kyun chal rha h waqt…
Na jaane kyun chal rhi hun main
Dheemi raftaar se…..
Khushi ke waqt chalta waqt tez raftaar se…
Dard ke waqt chalta waqt dheemi raftaar se…
Shayad chal rha h dard mere andar
Dheemi raftaar se…
Kisi ne pakda tha hath toh chal pada waqt raftaar se…
Chhodh diya usne hath toh ruk gya waqt bina baat ke…
Waqt toh wo hi h or chal rha wo apni raftaar se
Shayad main hi chal rh hun khudh ki apni raftaar se…
Shayad main hi chal rh hun khudh ki apni raftaar se…
-Mansi Goyal

आज का यह युग
जिसे कहते हम कलियुग
गांधी जैसे महात्मा
कसाब जैसे शैतान का युग
मानते है लड़की को देवी जहाँ
फिर भी गर्भ मे उनकी हत्या करने वालों का युग
करते है रात रात भर देवी जागरण
ऐसे कुछ भक्तों और दिल्ली के उन दरिंदो युग
नोकरी से पहले खाते ईमानदारी की कसमें
फिर भी १०० में ९० बेईमानों का युग
यहाँ अमीर कम खाता है
क्योंकि सुना है ज्यादा खाने से पेट बढ़ जाता है
सबका पेट भरने की खातिर जो किसान पसीना बहाता है
आखिर वही किसान भूख से मर जाता है
ये है बलवानों का युग,
राजतंत्र के पहलवानों का युग
चुनाव से पहले जो घर आते उन सज्जनों का युग,
चुनाव के बाद जो भूल जाते उन दुर्जनों का युग
यहाँ अमीर गरीब नहीं गरीबों को हटाते हैं
उनका कहना है गरबों के झोपड़े उनके महलों पे दाग लगाते हैं
एक तरफ ये ए.सी मे आराम फरमाते हैं
दूसरी तरफ वही गरीब लोग गर्मी से फड़फड़ाते हैं
राम नहीं,रहीम नहीं,ना समय अब कबीर का
भूल गए सब दोहे,वक़्त अब हनी सिंह का
भूल गए अब सब मंत्र
पूजा करता खुद अब संगीत यंत्र
हे भगवन आया केसा युग है
मित्रों जरा संभल के, घोर कलियुग है
-नितेश गौर
रेत का हाथों से फिसलने में वक़्त अभी बाकी है 
एक लहर गुज़री है दूसरी का लौट के आना अभी बाकी है
कल जो गुज़रा था उसका कल लौट के आना अभी बाकी है
बहुत दिन गुज़ारे हैं अश्क बहा कर फिर से मुस्कुराना अभी बाकी है
गलती ना हो जाये बस यही सोच डरता रहा गलती करके पछताना अभी बाकी है
रात थी लम्बी तो लगा अंधेरे का है राज, सुबह का फिर नयी रोशनी लेकर लौट आना अभी बाकी है
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